Friday, April 29, 2022

विरोधाभास में प्रेम

आज, 29 अप्रैल 2022, को विश्व विद्यालय से घर की तरफ आते हुए जब राजीव चौक से द्वारका की ओर आने वाली ब्लू लाइन मेट्रो में बैठा तो देखा कि मेरे ठीक सामने प्रौढ़ अवस्था के पति-पत्नी भी आकर बैठ गए। दोपहर के लगभग डेढ़ बजे होंगे। चिलचिलाती धूप से आकर जैसे ही मेट्रो में सीट मिली एक फुरसत की साँस ली और नींद मुझे अपनी गिरफ्त में लेने लगी। कई बार ऐसा होने पर मैं अपने गंतव्य से कुछ आगे निकल गया इसलिए इस बार पूरी सुप्त अवस्था में न जाकर जगनिंदिया लेने की सोची। मेरी पलकें भारी हो रहीं थी अतः मैंने उन्हें ढीला छोड़ नेत्र पाटल बंद कर लिए। किंतु पूर्णतः नींद में नहीं था जिसके परिणामस्वरूप मुझे आस पास की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। बाईं ओर बैठे यूवक की फोन की टोन बज रही है, "दम मारो दम, मिट जाएँ ग़म.." दाईं ओर एक लंबी चौड़ी हृष्ट-पुष्ट लडक़ी बैठी है जिसकी ऊँचाई साढ़े पाँच फ़ीट के करीब होगी और वो बार अपनी टाँगों की अवस्था बदल रही थी और क्रॉस की हुई टांगों में कभी दाईं टाँग ऊपर रखती तो कभी बाईं टाँग। उसके ठीक बाद एक पंजाबन आंटी बैठी हुई थी जो ज़ोर-ज़ोर से फोन पर बात कर रही थीं।  मेरे दाईं ओर के गेट के पास दो स्कूली छात्राएँ आपस में हँसी ठिठोली कर रही थीं। और मेट्रो का सोचना सिस्टम अपनी ही धुन में बिना किसी अवरोध के चल रहा था, "अगला स्टेशन रामकृष्ण आश्रम मार्ग है..." इसी वातावरण के बीच एक अलग ही ग्रामीण बोली बोली और लहजे में आवाज़ सुनाई दी। "लाओ खा लैवें जाय, फाड़ दौं जा चिपस के पैकेटै।" बोली से उत्तर प्रदेश के इटावा या एटा जिले के लग रही थी उसको बोलने वाली। वैसे अन्य कई गतिविधियों के चलते मेरी पलकें पुतलियों को ढके रहीं लेकिन इस आवाज़ में ऐसा आकर्षण था कि मेरी पलकें झट से ऊपर उठ गईं। नज़रें क्या देखती हैं कि सारी पहने उस महिला घुटनों के बीच तो दूरी है लेकिन हवाई चप्पल पहने हुए पंजे आपस में गले मिले रहे हैं। साथ ही में बैठे उसके पति ने भी कुरुम के जूते पहने हैं और अपने चेहरे से छोटा मास्क लगा रखा है। उसने एक पैर  का जूता पूरी तरह उतार रखा है और दूसरे पैर का पंजा हल्का सा जूते के अंदर है। खैर ये सब छोड़ो बात पर आते हैं पति से चिप्स का पैकेट फाड़ने की बात कहने के बाद उसने पैकेट को फाड़ा और उसमें नाम मात्र के चिप्स देखकर हैरानी से बोली, "का है जामें, जा बीस रुपया को आये!! का आवै बीस रुपया में। हेंई कित्ते चिपस जामें??" इतना बोल बड़बड़ाते हुए उसने कुछ चिप्स निकले और पति की ओर बढ़ाते हुए कहा, "लै खा ले।" पति ने सुना नहीं या फिर अनसुना कर दिया। उसने फिर कहा, "लै तू भी खा लै, कछु पेट को सहारा है जागो।" पति ने ले लिये और खाने लगा। अब वो भी काफी तेजी से चिप्स खाने लगी। मेट्रो चले जा रही थी और साथ ही साथ वो बातें किये जा रहे थे MRI, अल्ट्रासाउंड आदि की जिससे अनुमान लगा पा रहा था कि वो हॉस्पिटल से आ रहे हैं, शायद एम्स से। पति के चिप्स खत्म हो गए अब उसने हरे रंग की बिना किसी स्टीकर लगी स्प्राइट की बोतल निकली जिसमें स्प्राइट नहीं बल्कि पानी भरा हुआ था। पति ने थोड़ा सा मास्क नीचे किया और ऊपर मुँह करके बिना बोतल को मुँह से लगाये पानी पीने लगा और इतने में मेट्रो चल दी तो थोड़ा पानी नीचे उसके कपड़ों पर गिर गया। थोड़ी ही देर में मेट्रो ने याद दिलाया अगला स्टेशन राजेन्द्र प्लेस है। अब उसने एक बार फिर अपने पति को चिप्स दिखाते हुए कहा, "लै और लै-लै", पति ने न में गर्दन हिलाई। वो बोली " अरे! लै लै अभी हैं" पति ने गर्दन और हाथ साथ में हिलाते हुए मना किया और वो खुद खा ले ऐसा इशारा किया। अब यहाँ उसके शब्दों में विरोधाभास दिखा जब वो बोली, "अरे, लै लै अभी भोत ऐं। इत्ते सारे चिपस तो अभईं पड़े जा पैकट में।" सोचने की बात है कि जब उसने चिप्स का पैकेट खोला तो बीस रुपये के हिसाब से चिप्स बहुत कम लगे उसे। बाद में उन दोनों ने कुछ चिप्स खा लिये और दोनों के खाने के बाद भी जब एक बार और अपने पति को देती है और पति मना करता है तो उसे खाने के बाद भी बचे हुए चिप्सों की मात्रा उस मात्रा से ज्यादा लगती है जो उसने पैकेट को खोलते समय देखी थी। पति जानता है कि चिप्स कम हैं, साथ ही उसे अपनी भूख से ये भी अंदाज़ा है कि पत्नी को भूख लगी है। पत्नी के प्रति अपने प्रेम के कारण वो चिप्स लेने से मना करता है और वही दूसरी तरफ उसकी पत्नी भी जानती है कि उसके पति को भूख लगी है साथ ही उसे ये भी पता है कि सामान्यतया पुरुष को महिला की तुलना में अधिक भोजन की आवश्यकता होती है, इसलिए वो चिप्स न के बराबर बचने के बाद भी अंतिम बचे हुए चिप्स अपने पति को देना चाहती है वो भी यह झूठ बोलकर कि अभी बहुत से चिप्स बचे हुए हैं और उस पैकेट में बहुत से चिप्स हैं। पति के प्रति प्रेमवश वो यह भूल जाती है कि उसने चिप्स का पैकेट खोलते वक़्त क्या कहा था और अब क्या कह रही है। वो नहीं परवाह की उसके दोनों ही कथन तर्कसंगत हैं भी या नहीं। उसे नहीं समझ आता विरोधाभास। उन्हें समझ आता है तो प्रेम जिसका प्रदर्शन वो इसी प्रकार के गैर-तार्किक वक्तव्यों से करती है। यही हमारे भारत की संस्कृति है। विरोधाभास हमारी संस्कृति में अनिवार्य है।निश्चित प्रेम की उपस्थिति विरोधाभास में। जैसे माँ के दंड में होता बच्चे के लिए प्रेम और पिता की फटकार में होता है स्नेह अपने बेटे/बेटी के लिए।


-शीलू अनुरागी

29-04-2022

Wednesday, April 27, 2022

थप्पड़ मारूँगी:लड़कियों का ब्रम्हास्त्र


यूँ तो रोजाना ही न जाने कितनी ही घटनाएँ घटती हैं लेकिन आज सुबह की घटना ने तो मानो दिल को झकझोर कर रख दिया। साथ ही ये कोई सहानुभूतित नहीं स्वानुभितित घटना है। आज सुबह दिल्ली विश्व विद्यालय के लिए घर से निकला और तिलक नगर मेट्रो स्टेशन पहुँचा। वहाँ मैंने मेट्रो स्मार्ट कार्ड में रिचार्ज के लिए कार्ड के साथ 500/-रु. का नोट वहाँ मौजूद ऊँघती हुई महिला को दिया और कहा कि 200/-रु. का रिचार्ज कर दीजिये। वहाँ एक ऊँघती हुई महिला कर्मचारी थी जिसका नाम मैं देख नही पाया या यूँ कहिए कि मेरा ध्यान ही नहीं गया। लेकिन हाँ, वो आज (27-04-2022) की सुबह की शिफ्ट में थी।  कुछ देर बाद उन्होंने मुझे कार्ड दिया और दूसरे ग्राहक का रिचार्ज करने लगी और रिचार्ज होने के बाद भी मुझे खड़ा देख उनकी निगाहों में प्रश्नचिन्ह उभर आई जो कि मेरी ओर टिकी पुतलियों में साफ-साफ देख पा रहा था मैं। उनके पूछने ने पर मैंने बड़े  प्यारे और सभ्य शब्दों में कहा कि मेरे 300/-रु. बचे हैं वो वापस दे दीजिए। मेरे रुपये माँगने पर वो मुझसे प्रश्न करने लगी कि, "अपने कितने का कहा था?" मैंने कहा, "200/- का।" वो बोली "आपने नहीं बताया और मैंने बोला कि मैंने बताया था।" इस पर काफी देर जब बात हुई तो मैंने कहा कि "वैसे तो मैंने बोला था कि 200/- का रिचार्ज करना है, फिर भी यदि आपने नहीं सुना तो आपने पूछा क्यों नहीं?" वो बोली, "मैं यहाँ पूछने के लिए नहीं बैठी हूँ कि कितने का कारना है।" मैंने कहा, "आपको पूछना चाहिए आपने बिना पूछे 500/-रु. का रिचार्ज कैसे कर दिया?" वो बड़े ही अकड़ भरे शब्दों में बोली -"पूछना मेरा काम नहीं है।" वो अपनी गलती मान ही नहीं रही थी। मैंने पूर्णतः हैरानी भरे लहजे में पूछा- "यदि मैं 2000/- रु. का नोट दूँगा तो क्या पूरे का रिचार्ज कर देंगी आप, पूछोगी नहीं?" वो हिमालय के बराबर घमंड धारण किये कुर्सी पर टिकट हुए बोली-"मुझे जितने का नोट दोगे उतने का ही रिचार्ज कर दूँगी, पर पूछूँगी नहीं।" इस पर मुझे भी थोड़ा गुस्सा आया और मैंने ज़ोर देकर कहा, "आप पैसे डिडक्ट कर लो तो वो बोली ये मेरे बस की बात नहीं है।" 

मैंने कहा जब आप के बस की नहीं है तो आपने करने से पहले पूछा क्यों नहीं?

मुझे मेरे पैसे चाहिए क्योंकि आगे मेरे खर्चे के लिए पैसे नहीं हैं मेरे पास। 

बस इतने में ही उन्होंने ने बदतमीज़ी भरे शब्दों में कहा, "तू जा यहाँ से, पैसे वापस नहीं होंगे।" 

मैंने चेतावनी दी कि पहले तो आप तमीज़ से बात करिए। वो बोली "अबे तू जा यहाँ से, एक बार कह दिया कि पैसे वापस नहीं होंगे।"

 अब जब मुझे गुस्सा आया तो मैं भी तू-तड़ाक से बात की। अब उन्हें बुरा लगा और वो कहने लगी "बदतमीज़ी मत कर वरना थप्पड़ मारूँगी।"

मैंने पूरी तेज़ आवाज़ में बोला- "आ, हिम्मत है तो तू थप्पड़ मार कर दिखा, तेरे भी दो तीन घूँसे न जड़ दिए तो कहियो।" मेरे लिए क्या था कर नहीं तो डर नहीं। पर यहाँ पर अधिकतर लोग मुझे गलत कहेंगे कि तुझे ऐसे शब्द नहीं बोलने चाहिए थे। वो लड़की है उससे मर्यादित भाषा में बात करनी चाहिए थी। कई तो ये भी सोचेंगे कि यदि लड़का होता तो मैं ऐसा नहीं बोलता। लेकिन मैं जानता हूँ कि मैं ग़लत नहीं हूँ। मैं समझ तो चुका था कि वो अपने लड़की होने का गलत फायदा उठाने लगीं है।

मैंने यह देखा है कि अक्सर लड़कियाँ जब ग़लत होती हैं और उनके पास बचाव का कोई और रास्ता नहीं होता या फिर उन्हें किसी को नीचा दिखाना होता है और उनके पास एक ब्रम्हास्त्र होता है "थप्पड़ मारूँगी, तमीज़ में बात कर ले।" ये वाक्य सुनते ही न जाने कितने आसपास के पुरुष और स्त्रियाँ उसकी सेना बनकर उसके पक्ष में लड़के को मारने पीटने को तैयार हो जाते हैं। फिर वो भूल जाते हैं कि दुनिया में कुछ सही और गलत भी होता है।

अब उनके फैसले का मानदंड लिंग पर आधारित होता है। लड़की यानी सही और लड़का मतलब गलत। अब वो स्वंय को वीरांगना लक्ष्मीबाई से कम नहीं समझती। साथ ही पूरे दिन अपनी इस वीरता की चर्चा अपने मित्रों और रिश्तेदारों से करती हैं और आने वाली कई पीढ़ियों तक एक वीरगाथा के समान अपनी पुश्तों को सुनाती हैं।

इसके बाद मेरी तेज़ आवाज़ सुनकर आर्मी ऑफिसर्स आये और उन्होंने ने मुझसे कहा कि आप तमीज़ से बात करिए वो लड़की है और वैसे भी आपके पैसे हैं तो आपके कार्ड में आप ही के पास। पर मेरा प्रश्न ये है कि

क्या मेरा कोई सम्मान नहीं??

वो लड़की है तो क्या दाल ही दाल खाएगी? उन्होंने ने जवाब तो कोई नहीं दिया पर उनकी खामोशी चीख-चीख कर कह रही थी, हाँ!!हाँ.!!हाँ..!!

मैं लड़का हूँ तो क्या मुझे कहीं भी अपमानित किया जा सकता है? साथ ही ये भी उम्मीद की जाती है कि मैं उस अपमान के घूँट को निर्विरोध सह जाऊँ।

रही बात पैसों की तो क्या मैं रिक्शे का किराया मेट्रो कार्ड से दे सकता था?

क्या दोपहर का खाना मैं मेट्रो कार्ड से पैसे देकर खा सकता था?

साथ ही आर्मी अफसर ने ये भी कहा कि आप जाईये वरना आपके ऊपर फाइन(दंड) लगाया जाएगा।

अब देखिए एक तो मेरे जरूरत से अधिक के पैसों का रिचार्ज कर दिया गया न कि मेरे कहे अनुसार। दूसरे मेरे दिन के खर्च के लिए जो पैसे थे वो मेट्रो कार्ड में डाल दिये गए जिससे मेरा आगे का सफर क्या मेरा भोजन तक नहीं हो पाए। ऊपर से गलती कर के भी मेट्रो की एक कर्मचारी लड़की होने का फायदा उठाते हुए थप्पड़ मारने की धमकी देकर मुझे अपमानित करती है। उसके बाद विरोध करने और अपने पैसों की माँग करने पर वो अपनी गलती नहीं मानती बल्की मेरे ही ऊपर मेट्रो के द्वारा फाइन(दंड) लगाने की बात कही जाती है। ये तो वही बात हुई कि जिसकी लाठी, उसी की भैंस।

यदि ये भी मान लिया जाए कि ग़लतफ़हमी की वजह से ऐसा हुआ तो भी उसे अपनी ग़लती तो स्वीकारनी चाहिए पर नहीं, वो तो अपनी गलती स्वीकार करने की बजाए  उल्टे मुझी पर इल्ज़ाम लगाकर थप्पड़ मारने, जुर्माना लगाने आदि की धमकी दिला देती है।

क्या यही है मेट्रो का सभ्य स्टाफ??

क्या इसी प्रकार ग्राहक की सेवा करते हैं मेट्रो कर्मचारी??

इतना बुरा व्यवहार तो कोई अनपढ़ व्यक्ति भी नहीं करता अपने ग्राहक के साथ।

साथ यदि कोई मित्र न मिला होता तो पैसे न होने के कारण दिन भर भूखे पेट ही रहना पड़ता।

इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

मैं विश्विद्यालय मेट्रो स्टेशन तक तो पैदल आ गया।

पर तिलक नगर से निलोठी गाँव तक मुझे पैदल जाना पड़ा? इसकी भरपाई कौन करेगा??

दिल्ली मेट्रो से अपील है कि वो अपने कर्मचारियों के व्यवहार में सुधार करें। उन्हें ये भी समझाएँ कि लड़का का अर्थ ग़लत नहीं होता।

साथ ही दिल्ली सरकार से ये अपील है कि सही ग़लत देखें लिंग के आधार पर फैसला न करें। लड़का और लड़की में यदि समानता लाना ही चाहते हैं तो व्यवहार भी समानता का होना चाहिए। मैं स्वयं महिला समर्थक हूँ किंतु सही अर्थ में। महिलाओं से निवेदन है कि नारीवादी बनें पुरुष विरोधी नहीं।

वैसे तो ये किसी एक जगह की बात नहीं है। ये सम्पूर्ण भारत में हो रहा है। स्त्री को बढ़ावा कम दिया जा रहा है और पुरुष शोषण अधिक किया जा रहा है। अब उत्तर प्रदेश की ही एक घटना ले लो जिसमें एक लड़की ने एक लड़के को भरे चौराहे पर थप्पड़ ही थप्पड़ मारे थे। लेकिन सोचो कि वह बच क्यों गई??

वो इसलिए क्योंकि वो लड़की थी। लड़की मारे तो निडर, बहादुर, क्रांतिकारी और वीरांगना किंतु यदि लड़का विरोध में हाथ भी पकड़ लेता तो वो बदतमीज़ कहलाता और साथ ही उस पर महिला के जिस्म को गलत मकसद से छूने का आरोप सिद्ध हो जाता जिसके लिए उसको जेल में जीवन व्यतीत करना पड़ सकता था। यदि बच भी जाता तो भी उसके चरित्र और मान-सम्मान की तो हत्या हो ही जानी थी। पर यदि कुछ न होता तो भी भरे बाजार बेवजह पिटने के कारण जो उसकी आत्मा को ठेस पहुँची उससे उसका आत्मविश्वास तो शायद उसे लानत देते हुए उससे हमेशा के लिए दूर चला जाता। लेकिन लड़की को सज़ा नहीं मिलेगी क्योंकि अब तो वो अबला है।

साथ ही यदि लडकियाँ और महिलाएँ समानता चाहती हैं जो कि होनी भी चाहिए, तो मौका परस्ती छोड़ दें। ये नहीं कि जहाँ लाभ दिखा बराबरी की माँग की और जहाँ लाभ दिखा अबला बन गए। सरकार जो कानून उनकी सुरक्षा के लिए बनाती है उनका प्रयोग अपने बचाव के लिए करें, किसी पर झूठे इल्ज़ाम लगाकर उसके व्यक्तित्व और चरित्र की हत्या करने के लिए नहीं।

लड़का-लड़की एक समान के नारे के फलस्वरूप लड़कों ने तो लड़की को अपने समकक्ष समझा, एक समान समझा लेकिन लड़कियों ने लड़कों को मात्र एक सामान समझा है जिसे वो कभी भी कैसे भी बरत सकती हैं।

-शीलू अनुरागी

27-04-2022


||थी कौन, कहाँ से आई थी||कविता||शीलू अनुरागी||

  थी कौन, कहाँ से आई थी थी कौन, कहाँ से आई थी, पूछा नहीं उसका हाल। जिसके अधर मितभाषी थे, पर नैन बहुत वाचाल। हवा के संग में उड़ता था, परचम सा ...