थी कौन, कहाँ से आई थीथी कौन, कहाँ से आई थी, पूछा नहीं उसका हाल।जिसके अधर मितभाषी थे, पर नैन बहुत वाचाल।हवा के संग में उड़ता था,परचम सा उसका आँचल।आँखों में अपनी डाले थी,कजली से काला काजल।वो एक टक मुझको देखे थी,ऊपर से न नीचे पलक गई।उसने जब पल्लू को पकड़ा,थोड़ी सी हथेली झलक गई।पल्लू के किनारे को उसने,दाँतों से अपने दाब लिया।उड़ती कोंछि जब देखी तो,घुटनों में उनको दाब दिया।उसके रूखे-काले हाथों ने,कितने ही दुख झेले होंगे।औरों को करते हुए साफ,ये खुद भी हुए मैले होंगे।ई-रिक्शा में बैठी थी वो, क्या देखते उसकी चाल।जिसके अधर मितभाषी थे, पर नैन बहुत वाचाल।हल्का गले में मैल जमा था,पतली काली सी नख जैसे।जैसे कि बढ़ना छोड़ा चुके,लगते थे उसके नख ऐसे।सर्द सा मौसम था, वो भी,हल्की सी अकुलाई थी।पूरी बाजू का पहन पोल्का,धान काट कर आई थी।वैसे तो गैर नहाई थी पर,आँखों में उज्ज्वल नूर भी था।प्रौढ़ावस्था थी उसकी औ,माथे पर लाल सिंदूर भी था।एक यही साधन देखा था,उसके सरल सिंगार में तब।जो खूब इज़ाफ़ा करता था,नैनों के बड़े आकार में तब।आँखों में उत्तर थे उससे, करता क्यों भला सवाल।जिसके अधर मितभाषी थे, पर नैन बहुत वाचाल।मेरा पहनावा देख ज़ुबाँ,बोली तुम कहाँ से आये हो?नैना बड़बोले बोल उठे,तुम मेरे हृदय को भाए हो।मुस्कान की रेखा कहती थी,वो भी कभी हँसती होगी।कही-अनकही दोनों हृदय में,इच्छाएँ भी बसती होंगी।क्या-क्या नित सहती उसने,कितना वहशीपन सह डाला।पर प्रेम की कितनी प्यासी थी,रूखे अधरों ने कह डाला।मैंने उसकी दो आँखों में,अपनी ही छवि बसती देखी।नज़रों के दस्तक देने पर,उसकी अँगिया कसती देखी।उसकी दो छतियाँ दच्ची में, देती आपस में ताल।जिसके अधर मितभाषी थे, पर नैन बड़े वाचाल।मुस्काकर उसने प्रश्न किया,क्या एक बात बतलाओगे?बुरा न मानो तो कहिए कि,आप कहाँ को जाओगे?मैं बोला इस रिक्शे से मुझे,बस यहीं, 'नरैनी' जाना है।कभी-कभी मैं आता हूँ,न रोज का आना-जाना है।कुछ ही क्षणों में हम दोनों,उस चौराहे पर पहुँच गए।जहाँ अलग रास्ते दोनों के,उस दोराहे पर पहुँच गए।बस आ..कर, वो अटक गई,शायद कुछ उसको कहना था।फिर हँसकर आगे चली गई,जीवन भर थोड़ी रहना था।पर वो कुछ देर को भूली थी, अपने जी के जंजाल।जिसके अधर मितभाषी थे, पर नैन बड़े वाचाल।16-12-2021-शीलू अनुरागी
Tuesday, March 5, 2024
||थी कौन, कहाँ से आई थी||कविता||शीलू अनुरागी||
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||थी कौन, कहाँ से आई थी||कविता||शीलू अनुरागी||
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