Monday, August 28, 2023

||इक दूजे से नाराज रहे||ग़ज़ल||शीलू अनुरागी||


इक दूजे से नाराज रहे

इक दूजे से नाराज़ रहे, संकेतों से सब बात हुई
सोचो मुझे बतओ तो, क्या ये भी कोई बात हुई?

दिन तो पूरा बीत गया, यहाँ-वहाँ की उलझन में
लेकिन तेरी याद आ गई, जैसे ही फिर रात हुई

बीते जेठ से सभी मास, नैनों में नमी नहीं आई
खूब बही अश्रु धारा, जब भादों में बरसात हुई

मोर-पपीहा-दादुर बोले, जैसे ही सावन आया
यूँ बाहों की कमी खली, झूले की जब बात हुई

मैंने इस छोटे झगड़े में, बड़ा मुनाफा ये पाया
एक बार की चुप्पी से, ग़ज़लें कई इज़ात हुई

तेरी-मेरी ख़ता नहीं, प्रेम में ये स्वाभाविक है
नोक-झोंक में अनुरागी, जीत हुई न मात हुई

-शीलू अनुरागी

Wednesday, August 16, 2023

||मेरी इस ज़िंदगानी में||कविता||शीलू अनुरागी||

 


मेरी इस ज़िंदगानी में

मेरी इस ज़िंदगानी में, वक़्त की ऐसी लहर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।

कभी तन्हाई में भीड़ रही,
कभी भीड़ को तन्हा मान लिया।
कभी अपनों को गैर बता डाला,
कभी गैरों को अपना जान लिया।
कभी खुद को सफल बनाने को, ये तो दिन-दोपहर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।

कभी काली रात का सूनापन,
तो कभी दिन का शोर चुना।
कभी मधुबन में भी काँव-काँव,
कभी कू-कू को हर ओर सुना।
संतुष्टि को पाने के लिये, कभी गाँव गई, कभी शहर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।

इक झोंके से कभी बिखर गई,
कभी लाख थपेड़े सह डाले।
कभी बोल के कुछ ना कह पाए,
कभी बिन बोले सब कह डाले।
कभी अपनों को बन सज़ा मिली, कभी दुश्मन पर कर महर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।

कभी काँटों को पग-पग पहना,
कभी माथे पुष्प नहीं साजे।
कभी डोली में रहा सन्नाटा,
कभी अर्थी पर बजते बाजे।
कभी जीवन से ही हार गई, कभी मौत पर भी ढा क़हर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई। 


-शीलू अनुरागी

Thursday, August 10, 2023

||क्यों नहीं आता तुझे?||ग़ज़ल||शीलू अनुरागी||

 क्यों नहीं आता तुझे?

अनकहे को जान जाना, क्यों नहीं आता तुझे?
दर्द-प्यार में अंतर लगाना, क्यों नहीं आता तुझे?

हाँ, मैं नाराज हूँ, परेशान हूँ, ये भी मैं ही बताऊँ!
अंदाज़ से अंदाज़ा लगाना, क्यों नहीं आता तुझे?

क्या हुआ? कैसे हुआ? हर बार पूछती है तू ये,
तीर को तम में चलाना, क्यों नहीं आता तुझे?

ये हैरानी भरे सवाल कर, दर्द और बढ़ा देती है,
घाव पर मरहम लगाना, क्यों नहीं आता तुझे?

बड़ा अच्छा लगता है, पल भर में रूठना तुझे,
तो आज मेरा रूठ जाना, क्यों नहीं भाता तुझे?

जिस तरह तुझे मनाया, हर बार रूठने पर तेरे,
ठीक वैसे ही मनाना, क्यों नहीं आता तुझे?

हमारी उड़ती रहें रातों की नींदें सोती रहे तू चैन से,
मेरी फिक्र में खुद को जगाना, क्यों नहीं आता तुझे?

सदा पलकों को बिछाएँ, हम ही तेरी राह पर,
प्यार में खुद को झुकाना, क्यों नहीं आता तुझे?

-शीलू अनुरागी

||थी कौन, कहाँ से आई थी||कविता||शीलू अनुरागी||

  थी कौन, कहाँ से आई थी थी कौन, कहाँ से आई थी, पूछा नहीं उसका हाल। जिसके अधर मितभाषी थे, पर नैन बहुत वाचाल। हवा के संग में उड़ता था, परचम सा ...