मेरी इस ज़िंदगानी में
मेरी इस ज़िंदगानी में, वक़्त की ऐसी लहर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।
कभी तन्हाई में भीड़ रही,
कभी भीड़ को तन्हा मान लिया।
कभी अपनों को गैर बता डाला,
कभी गैरों को अपना जान लिया।
कभी खुद को सफल बनाने को, ये तो दिन-दोपहर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।
कभी काली रात का सूनापन,
तो कभी दिन का शोर चुना।
कभी मधुबन में भी काँव-काँव,
कभी कू-कू को हर ओर सुना।
संतुष्टि को पाने के लिये, कभी गाँव गई, कभी शहर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।
इक झोंके से कभी बिखर गई,
कभी लाख थपेड़े सह डाले।
कभी बोल के कुछ ना कह पाए,
कभी बिन बोले सब कह डाले।
कभी अपनों को बन सज़ा मिली, कभी दुश्मन पर कर महर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।
कभी काँटों को पग-पग पहना,
कभी माथे पुष्प नहीं साजे।
कभी डोली में रहा सन्नाटा,
कभी अर्थी पर बजते बाजे।
कभी जीवन से ही हार गई, कभी मौत पर भी ढा क़हर गई।
कभी नदिया सी ये बह निकली, कभी पर्वत सी ये ठहर गई।
-शीलू अनुरागी
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